दिव्येन्दु राय की कलम से

भारतीय इतिहास में 9 अगस्त का दिन कई घटनाओं के लिए याद किया जाता है। 9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन लूट ली। क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था।

8 अगस्त 1942 को कांग्रेस ने बंबई अधिवेशन में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने का संकल्प पारित किया था। इसके अगले दिन या 9 अगस्त के देश भर के लोग इससे जुड़ गए और इस आंदोलन ने तुरंत ही जोर पकड़ लिया। इसी दिन महात्मा गांधी ने “करो या मरो का नारा दिया था।” उसी दिन महात्मा गांधी को गिरफ्तार भी कर लिया था। इन्हीं घटित हुए घटनाक्रमों को अगस्त क्रांति कहा गया। 9 अगस्त को विश्व जनजातीय दिवस भी मनाया जाता है।
लेकिन वर्तमान समय में बिहार की राजनीति में भी अगस्त क्रांति हो गई है मतलब ऐसा बदलाव हुआ है जिसकी उम्मीद तो लोगों को थी कि ऐसा देर सबेर हो सकता है लेकिन अगस्त में ही यह राजनीतिक अगस्त क्रांति हो जाएगी इसकी उम्मीद कम ही लोगों को रही होगी।


यूं तो लालू यादव और नीतीश कुमार पुराने साथी हैं एवं राजनैतिक रूप से आपातकाल के संघर्ष की उपज के तौर पर देखे जाते हैं, 1990 के चुनाव में दोनों जनता दल में एक साथ थे और जनता दल को सबसे अधिक 122 सीटें भी मिली तथा सरकार भी बनी लेकिन इन दोनों का राहें साल 1994 में जुदा हो गईं। नीतीश कुमार ने अपने पुराने सहयोगी लालू यादव का साथ छोड़कर लोगों को काफी हैरान कर दिया एवं जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया जिसका नाम आगे चलकर 2003 में जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू हुआ।

राजनीतिक जीवन में नीतीश कुमार के सियासी विचार और रूख मौसम के तर्ज़ पर बदलते भी रहे हैं। नीतीश कुमार पहले समता पार्टी और वर्तमान की जदयू के साथ 1996 से 2013 तक भाजपा गठबन्धन के साथी, 17 साल के लम्बे अंतराल पर यह दुरियां आयी थीं।

भाजपा से नाता तोड़कर जदयू ने 2015 के विधानसभा चुनाव को राजद के साथ मिलकर लड़ा था। चुनाव में राजद जदयू गठबंधन की जीत हुई तथा नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहे लेकिन यह साथ ज्यादे दिन तक नहीं चल पाया। भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से उन्होंने विधानसभा में पुनः विश्वास मत हासिल कर अपनी कुर्सी को बचाए रखा और उन्होंने बिहार विधानसभा के सदन में कहा था कि “14 जन्म के बाद भी कोई चांस नही है नरेन्द्र मोदी जी के खिलाफ जाएं। रहें या मिट्टी में मिल जाये भविष्य में आपसे (राजद) कोई समझौता संभव नहीं है, किसी भी परिस्थिति में लौटकर राजद के साथ जाने का प्रश्न ही नहीं है।”

राजद के मुखिया लालू यादव ने भी 3 अगस्त 2017 को गठबन्धन टूटने के बाद ट्वीट करके लिखा था कि ” नीतीश सांप है जैसे सांप केंचुल छोड़ता है वैसे ही नीतीश भी केंचुल छोड़ता है और हर 2 साल में साँप की तरह नया चमड़ा धारण कर लेता है।किसी को शक?” लेकिन वह कहते हैं ना कि राजनीति में ना कोई स्थायी शत्रु होता है और न ही कोई स्थायी मित्र। फिर 2017 में ही नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गये, फ़िलहाल बिहार की राजनीति इसका ताजा उदाहरण है। ऐसे उदाहरण दिल्ली, जम्मू कश्मीर और महाराष्ट्र में भी देखे जा चुके हैं।

राजनीति में चेहरे का, उपयोगिता का बड़ा महत्व होता है। वर्तमान समय में नीतीश कुमार, एकनाथ सिंदे इसके बड़े उदाहरण है, भारतीय राजनीति में पूर्व प्रधानमंत्री स्व० चंद्रशेखर भी इसके उदाहरण रह चुके हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादे सीटें पाने वाले दल भाजपा ने तीसरे नम्बर के दल जदयू के नेता को मुख्यमंत्री बनाया। वैसे ही वर्तमान समय में दूसरे नम्बर पर सीटें पाने वाला दल राजद पुनः जदयू के नेता को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकारने के लिए बाहें फैलाए खड़ा था जिसका नतीजा यह हुआ कि नीतीश कुमार ने इस्तीफा दिया, नीतीश कुमार ने सरकार बनाने का प्रस्ताव दिया और अंततः नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली।

नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के एकमात्र ऐसे नेता हैं जो लगभग दो दशक मुख्यमंत्री रह चुके हैं और आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। वह 2005 से लगातार अबतक बिहार के मुख्यमंत्री हैं, बीच में 2014 लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद उन्होंने कुछ दिनों के लिए जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। संयोग से आठों बार कभी भी इनके दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार आलू की तरह हैं जो परवल के साथ-साथ अन्य भी कई सब्जियों के लिए उपयोगी होते हैं।

 

बिहार की राजनीति का वर्तमान परिदृश्य भले कुछ और हो लेकिन भविष्य को लेकर एक उम्मीद यह भी व्यक्ति की जा रही है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल की आमने सामने की लड़ाई रहेगी और मतदाताओं को मतदान करने में थोड़ी आसानी भी होगी। जदयू के इस प्रयोग को राजनीतिक जानकारी आखिरी बड़े प्रयोग के तौर पर देख रहे हैं लेकिन राजनीति में कभी भी किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
कभी नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री मैटेरियल समझते थे, समझते तो आज भी होंगे लेकिन इतने गठबन्धनों में आने जाने की वजह से इस पद को लेकर उनकी दावेदारी थोड़ी कमजोर जरूर हुई है। अब नीतीश कुमार के साथ कभी उनके हमराही रहे आरसीपी सिंह भी नहीं हैं जिसपर एक समय नीतीश कुमार को इतना भरोसा हुआ करता था कि उन्होंने उनको जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बना दिया था लेकिन एक पुराने साथी उपेन्द्र कुशवाहा फिर से नीतीश कुमार के साथ जरूर आ गये हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि जैसे क्षेत्रीय दलों के सूर्य का एक समय बाद अस्त हो जाता है वैसा ही जदयू के साथ भी होने की सम्भावना है।